वो मुझसे अपनी हस्ती छुपाता क्यों है / शमशाद इलाही अंसारी
वो मुझसे अपनी हस्ती छुपाता क्यों है,
रोज़ हाथ दिखा कर नज़रें चुराता क्यों है।
गोया मैं किसी काम का नहीं रहा तेरे,
मेरे पहलू में ये काँटे तू बिछाता क्यों है।
दस्तक भी दी, उसे ख़त भी लिखा, आवाज़ भी दी,
है मिलनसार तो मुझसे खु़द को बचाता क्यों है।
भरता है नए-नए रंग रोज़ अपने लिबास में,
अपनी जिल्द का वो असल रंग मिटाता क्यों है।
सूखे पत्तों की तरह बैठा रहा चौखट पर उसकी,
वो रास्ता बदल-बदल कर इतना सताता क्यों है।
वो मेरे पास था, यहीं था, बैठा था अभी,
लौट आएगा सुबह की तरह घबराता क्यों है।
वो माँझी होगा अब मेरा, ये कश्ती-पतवार भी तेरी,
नाखुदा मेरे यकींन को तू हर बार दफ़नाता क्यों है।
"शम्स" गुज़रता है हर रोज़ छू-छू कर तेरे दरों दीवार,
सहर-ए-आफ़ताब अब तेरा नहीं, ये झूठ फ़ैलाता क्यों है।
रचनाकाल : 22.02.2010