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वो मुझ में है उसे ढूंडू में क्यों दुनिया-ए-फ़ानी में / उदय कामत

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वो मुझ में है उसे ढूंडू में क्यों दुनिया-ए-फ़ानी में
उसे तहरीर में ढूंडू, उसे ढूंडू बयानी में

कभी हर्फों की सूरत में, कभी शेरों की म' आनी में
कभी मिसरा-ए-उला में, कभी मिसरा-ए-सानी में

कभी लफ़्ज़ों में मख़फ़ी तो, कभी आँखों के पानी में
कभी मेरी हक़ीक़त में, कभी मेरी कहानी में

ठहर जाओ घड़ी भर के लिए ये इल्तिजा है बस
मदद होगी मिरे दिल को सुकूँ में और रवानी में

तुम्हारी याद जब हमको सताएगी, गुज़ारेंगे
कभी हम रूह में बस कर, कभी वह आस्तानी में

गुज़ारी उम्र हमने इस तरह दर पर तेरे ज़ालिम
कभी दहलीज़ तकने में, कभी यूँ पासबानी में

किनारे रंज की रेतों में दब कर खो गए लेकिन
कभी इक मौज गुज़री थी यहाँ से शादमानी में

भला ये जिस्म मर जाए मगर ज़िंदा रहे 'मयकश'
कभी क़िस्सा-कहानी में, कभी सादा बयानी में