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वो मेरे हक़ के लिये मेरा बुरा करते हैं / अमित
Kavita Kosh से
अब अंधेरों में उजालों से डरा करते हैं
ख़ौफ़, जुगनूँ से भी खा करके मरा करते हैं
दिल के दरवाजे पे दस्तक न किसी की सुनिये
बदल के भेष लुटेरे भी फिरा करते हैं
उनका अन्दाज़े-करम उनकी इनायत है यही
वो मेरे हक़ के लिये मेरा बुरा करते हैं
गुनाह वो भी किये जो न किये थे मैंने
यूँ कमज़र्फ़ों के किरदार गिरा करते हैं
तंज़ करके गयी बहार भी मुझपे ही 'अमित'
कभी सराब भी बागों को हरा करते हैं