भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वो रेगिस्तान ले जाते तो सागर छोड़ जाते थे / निश्तर ख़ानक़ाही

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुसाफ़िर-ख़ाना-ए-इम्काँ* में बिस्तर छोड़ जाते थे
वो हम थे जो चिरागों को मुनव्वर* छोड़ जाते थे

गरज़तें-गूँजते आते थे जो सुनसान सहरा में
वही बादल अजब वीरान मंज़र छोड़ जाते थे

न थी मालूम भूखी नस्ल की मजबूरियाँ उनको
फटी चादर वो तलवारों के ऊपर छोड़ जाते थे

नहीं कुछ एतबार अब क़ुफ़्लों -दरबाँ* का,कभी हम भी
पड़ोसी के भरोसे पर खुला घर छोड़ जाते थे

कभी आँधी का ख़दशा* था, कभी तूफाँ का अंदेशा
वो रेगिस्तान ले जाते तो सागर छोड़ जाते थे

1-संभावनाओं का यात्री घर

2- रोशन

3-ताले और चौकीदार

4-आशंका