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वो रोज़ हमसे नया इक क़रार करता है / शोभा कुक्कल

वो रोज़ हमसे नया इक क़रार करता है
तो कौन ऐसों का फिर ऐतबार करता है

जो सर्द आहों में गुज़रे थे ज़िन्दगी के दिन
वो ज़िन्दगी में उन्हें क्यों शुमार करता है

गुज़रता जाता है वो अपनी चाल चलता हुआ
किसी का वक़्त कहां इंतज़ार करता है

बहाती रहती है जब आंख रो के काजल को
तो काजल आंख पे क्यों ऐतबार करता है

है मौत सामने ये जानता है परवाना
वो जान शमा पे फिर क्यों निसार करता है

जिन्हें था जाना वो बस्ती से जा चुके कब के
तलाश किसकी वो अब बार बार करता है

नहीं है मुझको यकीं उस के आने का कोई
वो नामुराद वादे हज़ार करता है।