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वो लब कि जैसे साग़र-ओ-सहबा दिखाई दे / कृष्ण बिहारी 'नूर'
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वो लब कि जैसे साग़र-ओ-सहबा दिखाई दे|
जुम्बिश जो हो तो जाम छलकता दिखाई दे|
दरिया में यूँ तो होते हैं क़तरे ही क़तरे सब,
क़तरा वही है जिसमें के दरिया दिखाई दे|
क्यों आईना कहें उसे पत्थर न क्यों कहें,
जिस आईने में अक्स न उसका दिखाई दे|
उस तश्ना-लब की नींद न टूटे दुआ करो,
जिस तश्ना-लब को ख़्वाब में दरिया दिखाई दे|
कैसी अजीब शर्त है दीदार के लिये,
आँखें जो बंद हों तो वो जलवा दिखाई दे|
क्या हुस्न है, जमाल है, क्या रंग-रूप है,
वो भीड़ में भी जाये तो तनहा दिखाई दे|