भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वो लम्हा मुझ को शश्दर कर गया था / अम्बर बहराईची

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वो लम्हा मुझ को शश्दर कर गया था
मिरे अंदर भी लावा भर गया था

है दोनों सम्त वीरानी का आलम
इसी रस्ते से वो लश्कर गया था

गुज़ारी थी भँवर में उस ने लेकिन
वो माँझी साहिलों से डर गया था

क़लंदर मुतमइन था झोंपड़े में
अबस उस के लिए महज़र गया था

न जाने कैसी आहट थी फ़ज़ा में
वो दिल ढलते ही अपने घर गया था

अभी तक बाम-ओ-दर हैं फूल जैसे
मिरे घर भी वो खुश-मंज़र गया था

सितारे बा-अदब ठहरे हुए थे
ख़ला में एक ख़ुश-पैकर गया था

इधर आँखों में मेरी धूल ठहरी
उधर शबनम से मंज़र भर गया था

मगर तिश्ना-लबी ठहरी मुक़द्दर
नदी के पास भी ‘अम्बर’ गया था