वो शाम / प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान'
बाग़ के इस हसीन गोशे में
सब्ज़ पेड़ों के नर्म साये में
धुंधला धुंधला हसीन साया था
रौशनी पर हिजाब छाया था
प्यार महका था इन फज़ाओं में
बूए-गुल जिस तरह हवाओं में
नशाए-बेख़ुदी से हो के चूर
हो के दुनिया के शोरो-शर से दूर
हम यहां एक जहां बैठे थे
पी के उल्फ़त का जाम बैठे थे
फूल बरसे थे शाखसारों से
बूए-गुल जिस तरह बहारों से
पंछी डालों पे चहचहाते थे
प्यार के मीठे गीत गाते थे
मौसमे-गुल था ताज़गी थी यहां
प्यार था हम थे ज़िन्दगी थी यहां
किस क़दर कैफ़ ज़ा फज़ाएं थीं
ज़ुल्फ़ से खेलती हवाएं थीं
तेरी जुल्फों में खो गया था मैं
उनकी ख़ुशबू का हो गया था मैं
अब न वो शाम है न शादाबी
खो गई है कहां वो रंगीनी
मैं यहां आज अकेला बैठा हूँ
याद में तेरी खोया बैठा हूँ
कितनी ग़मगीन ये हवाएं हैं
कितनी मायूसकुन फज़ाएं हैं
चाक दामन है सब्ज़ा ज़ारों का
दम घुटा जा रहा है तारों का
हर तरफ इक सुकून तारी है
मैं हूँ और मेरी आहो-ज़ारी है
रात का सुरमई अंधेरा है
और मुझे तेरे ग़म ने घेरा है
गर्के-शब हो गई वे रंगी शाम
मिट गये हैं वो चाहतों के जाम
प्यार करता हूँ चंद ख़ारों से
चुन के मैं तेरी रहगुज़ारों से
रह गया हूँ अकेला जब से मैं
सुब्ह का मुंतज़िर हूँ तब से मैं
सुब्ह लेकिन नज़र नहीं आती
सुब्ह की कुछ खबर नहीं आती
शब ये मुझसे बसर नहीं होगी
ज़िन्दगी भर सहर नहीं होगी
मुझको डसती है मेरी तन्हाई
है तसव्वुर में एक हरजाई।