वो सनम जब सूँ बसा दीदा-ए-हैरान में आ / वली दक्कनी
वो सनम जब सूँ बसा दीदा-ए-हैरान में आ
आतिश-ए-इश्क़ पड़ी अक़्ल के सामान में आ
नाज़ देता नहीं गर रुख्स़त-ए-गुलगश्त-ए-चमन
ऐ चमनज़ार-ए-हया दिल के गुलिस्तान में आ
ऐश है ऐश कि उस मह का ख़याल-ए-रौशन
शम्म:- रौशन किया मुझ दिल के शबिस्तान में आ
याद आता है मुझे जब वा गुल-ए-बाग़-ए-वफ़ा
अश्क करते हैं मकाँ गोशा-ए-दामान में आ
नाला-ओ-आह की तफ़्सील न पूछो मुझ सूँ
दफ़्तर-ए-दर्द बसा इश्क़ के दीवान में आ
हुस्न था पर्दा-ए-तज्रीद में सब सूँ आज़ाद
तालिब-ए-इश्क़ हुआ सूरत-ए-इनसान में आ
शेख़ याँ बात तिरी पेश न जावे हरगिज़
अक़्ल को छोड़ के मत मजलिस-ए-रिंदान में आ
दर्द मंदां को बजुज़ दर्द नहीं सैद-ए-मुराद
ऐ शह-ए-मुल्क-ए-जुनू ग़म के बयाबान में आ
हकिम-ए-वक्त़ है तुझ घर में रक़ीब-ए-बदख़ू
देव मुख्त़ार हुआ मुल्क-ए-सुलेमान में आ
चश्मा-ए-आब-ए-बक़ा जग में किया है हासिल
यूसुफ़-ए-हुस्न तिरे जाह-ए-ज़नख़दान में आ
जग के ख़ूबां का नमक हो के नमक परवर्दा
छुप रहा आके तिरे लब के नमकदान में आ
बस कि मुझ हाल सूँ हमसर है परीशानी में
दर्द कहती है मिरा, ज़ुल्फ़ तिरे कान में आ
ग़म सूँ तेरे है तरह्हुम का महल हाल-ए-'वली'
ज़ुल्म को छोड़ सजन शेवा-ए-अहसान में आ