वो सामने जब आ जाते हैं सकते का सा आलम होता है / इक़बाल सुहैल
वो सामने जब आ जाते हैं सकते का सा आलम होता है
उस दिल की तबाही क्या कहिए अमृत भी जिसे सम होता है
देते हैं उसी को जाम-ए-तरब जो जुरआ-कश-ए-गम होता है
कब बाग़-ए-जहाँ हैं ख़ंदा-ए-गुल बे-गिर्या-ए-शबनम होता है
जब वलवला सादिक़ होता है जब अज़्म मुसम्मम होता है
तकमील का सामाँ ग़ैब से ख़ुद उस वक़्त फ़राहम होता है
ये आग दहकती है जितनी उतना ही धुआँ कम देती है
एहसास-ए-सितम बढ़ जाता है तो शोर-ए-फ़ुग़ाँ कम होता है
रग रग में निज़ाम-ए-फ़ितरत की रक़्साँ है मोहब्बत की बिजली
हो लाख तज़ाद अज़दाद में भी इक राब्ता बाहम होता है
ताराज नशेमन खेल सही सय्याद मगर इतना सुन ले
जब इश्क़ की दुनिया लुटती है ख़ुद हुस्न का मातम होता है
दीवानों के जेब-ओ-दामन का उड़ता है फ़ज़ा में जो टुकड़ा
मुस्तक़बिल-ए-मिल्लत के हक़ में इक़बाल का परचम होता है