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वो सितम पर भी सितम ढाते रहे / पुरुषोत्तम प्रतीक
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वो सितम पर भी सितम ढाते रहे
लोग उनकी आरती गाते रहे
इस ज़मीं को तो समझ पाए नहीं
आसमानों की ख़बर लाते रहे
इस ज़माने की नज़र में आ गए
इस अदा से आप शरमाते रहे
छप्परों में छेद क्यूँ है क्या कहें
जो बिछाते हैं, वही छाते रहे
ज़िन्दगी या मौत दोनों एक हैं
हम न समझे, लोग समझाते रहे