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वो सुन न सके / सुनीता शानू
Kavita Kosh से
घूँघट की आड़ से
आँसुओं की धार में
पलके झुकाये
वह कहती रही
मगर
वो सुन न सके...
दीवारें सिसकती रहीं
कालीन भीगते रहे
कातर निगाहों से
उन्हें तकते रहे
मगर
वो सुन न सके...
एक वही थी जो
कह सकती थी
बहुत कुछ
एक वही थी जो
समझती थी
सबकी बातें
मगर...
जोर से बोलने का हक
सिर्फ़ उन्हें था.
दिन पर दिन
आसुँओं से तर-ब-तर
उम्र की ढलान में
दीवारें दरक गई
कालीन फ़ट गये
अब
सब्र का दामन छूटा,
घूँघट हटा,
पलकें उठी
वह झल्लाई
चिल्लाई जोर से
...अब बाबूजी ऊँचा सुनते हैं।