वो हमसे ख़फ़ा था मगर इतना भी नहीं था / मख़्मूर सईदी
वो हमसे ख़फ़ा था मगर इतना भी नहीं था
यूँ मिल के बिछड़ जाएँ, कुछ ऎसा भी नहीं था
क्या दिल से मिटे अब ख़लिशे-तर्के-ताल्लुक़
कर गुज़रे वो हम जो कभी सोचा भी नहीं था
रस्ते से पलट आए हैं हम किसलिए आख़िर
उससे न मिलेंगे ये इरादा भी नहीं था
कुछ, हम भी अब इस दर्द से मानूस बहुत हैं
कुछ, दर्दे-जुदाई का मदावा भी नहीं था
सर फोड़ के मर जाएँ, यही राहे-मफ़र थी
दीवार में दर क्या कि दरीचा भी नहीं था
दिल ख़ून हुआ और ये आँखें न हुईं नम
सच है, हमे रोने का सलीक़ा भी नहीं था
इक शख़्स की आँखों में बसा रहता है 'मख़्मूर'
बरसों से जिसे मैंने तो देखा भी नहीं था
शब्दार्थ :
ख़लिशे-तर्के-ताल्लुक़=सम्बन्ध-विच्छेद होने की कसक; मानूस=परिचित; दर्दे-जुदाई=वियोग का दुख; मदावा=इलाज; राहे-मफ़र=भागने का रास्ता; दर= दरवाज़ा; दरीचा=खिड़की