भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वो हवा कुछ कहती थी / तिथि दानी ढोबले

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अब जा के महसूस करना शुरू किया है,
कि
कितना फ़र्क है इन हवाओं में और उन हवाओं में।
कभी जब किसी खास दोस्त से रूबरू होते थे
तो यूं ही मन बनाते थे कि, चलो चला जाए
आज कहीं टहलने और हवा खाने
तो क़तई चौकन्ना नहीं होते थे हम
उस हवा के झोंके के लिए,
जो यूं ही बात करते- करते अचानक
हमारे कानों को छू जाता था और लहरा जाता था हमारे बाल।

तब एकदम से ख़ामोश हो जाते थे हम
अपने साथ वाले से कहते थे,
ज़रा सुनो, ये हवा कुछ कहती है...
लेकिन हमारे साथ वाला हमें वो आवाज़ सुनने नहीं देता था
और कहता था, ऊँ हूँSSS, तो मैं कहां था.....

लेकिन , अब जब अपने घर, अपने गांव, अपने शहर से दूर
बाग़ बगीचों में बैठते हैं हम,
तो कभी हवा हमारे कानों में कुछ नहीं कहती ,
ना ही हमारे बाल लहराती है।
अब महसूस होती है सिर्फ घुटन
एक शोर, हवा पर सवार हमारा पीछा करता है लगातार
बार-बार याद आती है वो साफ़ दिल हवा,
और अपने गालों पर उसका रेशमी स्पर्श
जिसे जाने- अनजाने बातचीत करते हुए
भुलाए रहते थे हम।