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वो हसरत-ए-बहार न तूफ़ान-ए-ज़िंदगी / सफ़िया शमीम

शम-ए-उम्मीद जला बैठे थे
दिल में खुद आग लगा बैठे थे

होश आया तो कहीं कुछ भी न था
हम भी किसी बज़्म में जा बैठे था

दश्त गुलज़ार हुआ जाता है
क्या यहाँ अहल-ए-वफ़ा बैठे थे

अब वहाँ हश्र उठा करते हैं
कल जहाँ अहल-ए-वफ़ा बैठे थे