वो हसीं बाम पर नहीं आता
चाँद अपना नज़र नहीं आता
हूक उठती नहीं है कब दिल से
मुँह को किस दिन जिगर नहीं आता
कौन इस बे-कसी में पुरसाँ है
होश दो दो पहर नहीं आता
ये भी सुनना था वाए ना-कामी
मरते हैं और मर नहीं आता
थी कभी बात बात में तासीर
अब दुआ में असर नहीं आता
खेल है क्या मिज़ाज-दाँ होना
काम ये उम्र भर नहीं आता
सादगी का हूँ उस की दीवाना
अभी जिस को सँवर नहीं आता
बे-ख़ुदी है कि छाई जाती है
होश आता नज़र नहीं आता
ये हसीं और इल्तिजाएँ ‘हफीज़’
रहम तुम को मगर नहीं आता