वो / अजित सिंह तोमर
उससे कोई आग्रह अपेक्षा नही थी
मगर उसे उदास देख
कहीं खो जाता था
एक वक्त का भोजन
एक वक्त की चाय
और बेवजह की मुस्कान
और उसकी खिलखिलाती हँसी की व्याख्या
की जा सकती थी अपने मन मुताबिक़
एक को लगता वो खुश है
एक को लगता वो खुश दिख रहा है
एक को लगता वो दुःख छिपा रहा है
एक को लगता वो हँस रहा है बेमन से
एक को लगती उसकी हँसी दुर्लभतम्
उसकी बातों में छल नही था
उसकी आँखों में कल नही था
वो जी रहा था वर्तमान बेहद मुक्त अंदाज़ में
उसके चलतें वो भूल गई थी
अपना भूत और भविष्य
वो बह रही थी वर्तमान की दिशा में
दक्खिनी हवा बनकर
उन्होंने मिलकर रच ली थी अपनी एक समानांतर दुनिया
जहाँ हवा आकाश धरती नदी जंगल सब उनके अपने थे
वो घूम रहे थे बेफिक्र हर जगह
उसकी दुनिया में कोई प्रतीक्षारत में नही था
इसलिए
वो टहल सकता था निर्द्वन्द
मगर कब तक ये कोई नही जानता था
मगर वो जब तक
तब तक था एक बहुमूल्य चीज़ की तरह
जिसे खोने का भय सबको एक साथ था
जब वो खो जाएगा
नही चलेगा पता कि किसकी प्रिय वस्तु खोई है
क्योंकि
उसके बाद नही हो सकेगी
कुछ लोगो की आपस में मुलाक़ात
वो अकेला पता था
जो मिलाता था अनजान लोगो को एक साथ
बिना किसी दोस्ती के।