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व्यंग्य / प्रांजलि अवस्थी
Kavita Kosh से
जिसने प्रेम के जूते में अपने पाँव डाल दिये थे
वो
धूप की तरह
छत की सीढ़ियों पर पसरा रहा
देर तक
ताकि
शाम के आँचल से छन कर आता अँधेरा
उसके अंदर उतर जाये
अपनी आँखों को टाँग आया
रात के दरवाजे पर
ताकि भविष्य की आँखों में तिनका ना जाये
हाथों को खोलता हवा में
फिर बाँध लेता
मुट्ठियाँ
साँसों के तहखाने में भर रहा हो जैसे
उसके लिये और दिये गये चुम्बनों पर
कसे / कहे गये
वे सारे व्यंग्य
जो ज़माने की काँख से रिस कर आए थे