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व्यक्तिवाद के ओले / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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मधुर मुस्कुराहट के मोती कहाँ खो गये हैं अपने ?
सिसक सिसक कर शान्त हो रहे सौमस्यता के सपने।

सत्य शांति के संकल्पों को आचरणों ने झटक दिया
विवश विकल्प हीन बेचारे लगे कागजों में बसने।

भग्न हो रहे अपने पावन महल समन्वय के उज्ज्वल,
व्यक्तिवाद के ओले बरसे, स्वार्थ सिन्धु जन मन उफने।

कहाँ रह गया है अब पावन पर्यावरण मधुर अपना,
धुम्रपान कर, हरपल जर्जर हो खोखला लगा जलने।
 
वैचारिक धरती पर कितने रंगों की फसलें छायीं
कैसे इन्हें सहेंजे, चिन्तन खलिहानों के हैं गहने ?

बहुआयामी सुविधाओं ने जीवन का श्रृंगार किया
क्षरित किया है किन्तु आत्मबल श्रम के स्वप्न लगे ढहने।

धवल चाँदनी में जब हमने हँसकर समय बिताया है
मावस में फिर आज हमारे क्यों हैं अश्रु लगे बहने ?