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व्यतीत का वर्तमान / ओमप्रकाश सारस्वत

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धृतराष्ट्र
जब राष्ट्रध्वज फहराते थे
तब तूर्यनाद होते ही
कूबड़े
सम्मान में
सीधे तन जाते थे
खुसरे
मर्दों-जैसी
तालियाँ बजाते थे
और पंगु
जननायक को
बरगलाते थे कि

आदेश करो महाराज!
हम हिमगिरि को
कंदुक की तरह उड़ा देंगे
और सूर्य को
आकाश के वृत से तोड़कर
आपके हाथों के सम्पुट में
राजमणि की तरह सजा देंगे

ऐसे समय में धृतराष्ट्र
'भावी' और असंभव को
दयनीय मानते थे
और स्वयं को परमेष्ठी के समकक्ष जानते थे
तब उन चंवर-चोरी के क्षणों में
चाकर
अपने सोच की पृथ्वी का
चप्पा-चप्पा छानकर
थकित हो स्वीकारते कि
'महाराज की महिमा
अपार है'

चाटुकार
जहाँपनाह की
कमज़ोरियों की कोख में
झाँक कर
तय पाते कि
'प्रशंसा बस प्रशंसा ही
उत्तमोत्तम हथियार है'
और बुद्धिजीवी सोचते कि
जहाँ सत्य को
सत्ता से स्थाई बताना
राजनियमों के अपमान में शामिल हो
बहाँ ऋतु की व्याख़्या
सम्राट के प्रभामण्डल को तर्जित करने के
अपराध से कमज़ुर्म कैसे होगा?

यहाँ एक गुलामी से
दूसरी आज़ादी तक का सफर
पूरे माहौल की साजिश के खिलाफ
अभिमन्यु की लड़ाई जैसा है
यह ठीक है कि
कहीं तदवत नहीं रहता
हस्तिनापुर का मायारूढ़ यौवन भी
ढला अंततः
इतिहास का रथचक्र बढ़ा
धार्तराष्ट्री प्कड़ के जबरन
इन्द्रप्रस्थ हो गया
व्यतीत का एक ज़िक्र
पर आश्चर्य परम
कि जो कूबड़े तब
शिखरणी में नाराशंसी गाते थे
जो खुसरे
पुरुषों-सा ठसका दिखाते थे
और जो पंगु
चरणरज की दौड़ में
हाँफ-हाँफ जाते थे
युगांतर हो जाने पर भी
अगर नहीं बदले
वे सब नही बदले
उनकी आत्मा ने किया
मात्र कायांतरण

मित्र!
समय आज भी
अँधा धृतराष्ट्र हो
बुद्धीजीवी को सता रहा है
और बुद्धिजीवी
द्वापर की तरह ही
वक्त को
लोहे के चनों की तरह चबा रहा है