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व्यतीत / वंशी माहेश्वरी
Kavita Kosh से
समय
घड़ी की तरह
शायद दीवार में
दिनारम्भ की फड़फड़ाती चेतना के साथ सूर्य
रोज़ाना
रोज़ाना ही उतरता जाता रहा है
कितने समय से
पता नहीं
कितने समय से
ये भी पता नहीं
कौन व्यतीत हो रहा है
समय या मनुष्य !