भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

व्यतीत / वंशी माहेश्वरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

समय
घड़ी की तरह
शायद दीवार में

दिनारम्भ की फड़फड़ाती चेतना के साथ सूर्य
रोज़ाना
रोज़ाना ही उतरता जाता रहा है

कितने समय से
पता नहीं

कितने समय से
ये भी पता नहीं
कौन व्यतीत हो रहा है
समय या मनुष्य !