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व्यथाकुल प्राण को जब / रामगोपाल 'रुद्र'
Kavita Kosh से
व्याकुल प्राण को जब सुध ज़रा बेसुध बनाती है,
तुम्हारा प्यार आता है!
गरल तुम दे नहीं सकते, सुधा मैं पी नहीं सकता;
दिया ही क्यों मुझे यह जग, जहाँ मैं जी नहीं सकता?
विवश मैं ही नहीं, इसमें तुम्हारी भी विवशता है
कि जब तक होश है, यह घाव कोई-सी नहीं सकता!
विसुधि भी क्या कि उठता हूँ सिहर, हर बार, जब टाँका
हृदय के पार जाता है!
मिलन का सुख तुम्हीं ने तो विरह का दुख बनाया है!
तुम्हीं देखो कि देकर आँख तुमने क्या दिखाया है!
तमाशाई बना भेजा, तमाशा कर दिया मुझको!
भुलावा भी तुम्हें ने और कहते हो, भुलाया है!
कि जिसको आप अपने-सा बनाते हो, वही ऐसा
कठिन उपचार पाता है!