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व्यथा / उषारानी राव

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त्वरित गति से बहुत कुछ घटता चला गया
रूप हीन है निष्ठा
कोई स्वरुप नहीं
कोई अर्थ नहीं
वस्त्र वलय से आवरित
नेत्रों में अपने
क्षितिज का फैलाव
करते-करते
ओढ़ लिया
अंधापन गांधारी ने!
महासतीत्व के
सिंहासन पर बैठ
करने लगी अपने अहं की तुष्टि!
अदृश्य दीवारों में
स्वयं ही बंदी
ओढ़े हुए अंधत्व से विषवमन किया
अबोध सुयोधन में
अकारण नहीं था यह!
विवाह के छल का प्रतिरोध
या समर्पण पतिव्रता का
'युद्धं देहि' की कांक्षा बलवती हो उठी
प्रश्न था
सत्ता का,
अधिकार का
अंततः
टूटी जांघ भग्न देह लिए
किया प्रश्न
दुर्योधन ने
जन्म तो दिया तुमने
रचा नहीं पांडवों -सा चरित्र!
निरुत्तर संज्ञाहीन गांधारी
अभिमान भंग !