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व्यर्थ की चाहत / उमा अर्पिता
Kavita Kosh से
तुम आए तो थे
बड़े उत्साह से समुद्र तक
मगर फिर डर क्यों गए
गहराई से,
पैर भिगोने से पहले ही…?
किनारे की रेत में
पैर धँसाकर
मूँगे और मोतियों से
झोली भरने की चाहत करना
कहाँ तक संगत है--?
सच मानो दोस्त
ऐसी चाहत तो कायरों की
बपौती है, और तुम भी
उन्हीं की पंक्ति में
आ खड़े होंगे,
ऐसा विश्वास तो न था...!