भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

व्यर्थ न कर देना तुम पल अभिसार / ललित मोहन त्रिवेदी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्रश्न छेड़ कर्तव्य और अधिकार का !
व्यर्थ न कर देना तुम पल अभिसार का !!

मन में कब तक व्यर्थ प्रतीक्षा लिए रहोगे
जब कोई भी नहीं आएगा द्वार तुम्हारे !
तुम्हें पता है रात कटेगी तारे गिन गिन
क्यों ख़राब करते हो फ़िर ये साँझ सकारे !

सहज आदमी होना कितना सम्मोहक है
देखो तो चोला उतार अवतार का ........................

माना हमने संघर्षों में जीना अच्छा
बाधाओं से लड़ते रहना ही है जीवन !
झंझाओं से जूझ नाव तट तक ले जाना
जीवन में गति ,गतिमय जीवन सच है, लेकिन !

धारा के संग बहने का भी अपना सुख है ,
देखो तो आसरा छोड़ पतवार का ........................

तुम हो जाओ मेरे विराट में लीन और ,
में तुमको पा अस्तित्व हीन होता जाऊं !
तुम झरो स्वांति की बूँद बूँद सी जीवन में ,
मैं चातक बनकर घूँट घूँट पीता जाऊं !

तथाकथित यह पाप आज तो कर ही डालें
कल खोजेंगे पंथ मुक्ति के द्वार का .................