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व्यष्टि / महेन्द्र भटनागर

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मैं केवल अपने सुख-दुख का क्या गान करूँ ?

देव ! तुम्हारी जन-नगरी में
महानाश का तांडव नर्तन,
अगणित मनुजों की लाशों पर
क्रूर पिशाचों का पद-मर्दन,
अपने घावों का फिर मैं क्या आख्यान करूँ ?

भय संस्कृति मिटने का प्रतिपल,
विश्व-सभ्यता पतनोन्मुख है ;
अस्थिरता, उथल-पुथल जीवन,
आशंका प्रतिक्षण सम्मुख है,
फिर अपने ही टिक रहने का क्या ध्यान करूँ ?

जिसने बंधन स्वयं बनाये,
पग-पग पर घुटने टेक दिये,
या अपने ही हाथों बढ़कर
रक्ताप्लावित युग-प्राण किये,
उस मानव पर फिर मैं कैसे अभिमान करूँ ?
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