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व्याज मिलन / सूरदास

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सुनि री मैया काल्हिहीं, मोतिसरी गँवाई ।

सखिनि मिलै जमुना गई, धौं उनही चुराई ॥

कीधौं जलही मैं गई, यह सुधि नहिं मेरैं !

तब तैं मैं पछिताति हौं, कहति न डर तेरैं ॥

पलक नहीं निसि कहुँ लगी, मोहिं सपथ तिहारी ।

इहि डर तैं मैं आजुहीं,अति उठी सबारी ॥

महरि सुनत चकित भई, मुख ज्वाब न आवै ।

सूर राधिका गुन भरी, कोउ पार न पावै ॥1॥


सुनि राधा अब तोहिं न पत्यैहौं ।

और हार चौकी हमेल अब, तेरैं कंठ न नैहौं ॥

लाख टका की हानि करी तैं, सो जब तोसौं लैहौं ।

हार बिना ल्याऐं लड़बौरी, घर नहिं पैठन दैहौं ॥

जब देखौंगी वहै मोतिसरि, तबहिण तौ सचु पैहौं ।

नातरू सूर जन्म भरि तेरो, नाउँ नहीं मुख लैहौं ॥2॥



जैहै कहाँ मोतिसरि मोरि ।

अब सुधि भई लई वाही नैं, हँसति चली बृषभानु-किसोरी ॥

अबहीं मैं लीन्हे आवति हौं , मेरै संग आवै जनि को री ।

देखौ धौं कह करिहौं वाकौ, बड़े लोग सीखत हैं चोरी ।

मौकौं आजु अबेर लागि है, ढूढ़ौंगो घर-घर ब्रज खोरी ।

सूर चली निधरक ह्वै सब सौं, चतुर राधिका बातनि भोरी ॥3॥


नंद-महर-घर के पिछवारैं, राधा आइ बतानी ॥

मनौ अंब-दल-मौर देखि के, कुहुकी कोकिल बानी ॥

झूठेहिं नाम लेति ललिता कौ, काहै जाहु परानी ।

वृन्दाबन-मग जाति अकेली, सिर लै दही-मथानी ॥

मैं बैठी परखति ह्वाँ रैहौं, स्याम तबहिं तिहिं जानी ।

कोक-कला-गुन आगरि नागरि, सूर चतुरई ठानी ॥4॥


सैन दै नागरी गई बन कौं ।

तबहिं कर-कौर दियौ डारि, रहि सकै, ग्वाल जेंवत तजे, मोह्यौ उनकौं ॥

चले अकुलाइ बन धाइ, ब्याई गाइ देखिहौं जाइ, मन हरष कीन्हौ ।

प्रिया निरखति पंथ, मिलैं कब हरि कंत, गए इहिं अंत हँसि अंक लीन्हौ ।

अतिहिं सुख पाइ, अतुराइ मिले धाइ दोउ, मनौ अति रंक नवनिधिहिं पाई ।

सूर प्रभु की प्रिया राधिका अति नवल, नवल नँदलाल के मनहिं भाई ॥5॥



दीजै कान्ह काँधे कौ कंबर ।

नान्ही नान्ही बूँदनि बरषन लाग्यौ, भीजत कुसँभी अंबर ॥

बार-बार अकुलाई राधिका, देखि, मेघ-आडंबर ।

हँसि हँसि रीझि बैटि रहे दोऊ, ओढ़ि सुभउ पीतंबर ॥

सिव सनकादिक नारद-सारद, अंत न पावै तुंबर ।

सूरस्याम-गति लखि न परति कछु, खात ग्वाल सँग संबर ॥6॥


कान्ह कह्यौ बन रैनि न कीजै, सुनहु राधिका प्यारी ।

अति हित सौं उर लाइ कह्यौ, अब भवन आपनैं जा री ॥

मातु-पिता जिय जानै न कोऊ, गुप्त-प्रीति रस भारी ।

कर तैं कौर डारि मैं आयौ, देखत दोउ महतारी ॥

तुम जैसी मोहिं प्यारी लागति, चंद चकोर कहा री ।

सूरदास स्वामी इन बातनि, नागरि रिझई भारी ॥7॥



मै बलि जाऊँ कन्हैया की ।

करतैं कौर डारि उठि धायौ, बात सुनी बन गैया की ॥

धौरी गाइ आपनी जानी, उपजी प्रीति लवैया की ।

तातैं जल समोइ पग धोवति, स्याम देखि हित मैया की ॥

जो अनुराग जसोद कै उर, मुख की कहनि कन्हैया की ।

यह सुख सूर और कहूँ नाहीं, सौंह करत बल भैया की ॥8॥



राधा अतिहिं चतुर प्रवीन ।

कृष्न कौ सुख दै चल हँसि, हंस-गति कटि छीन ॥

हार कैं मिस इहाँ आई, स्याम मनि -कैं काज ।

भयौ सब पूरन मनोरथ, मिले श्रीब्रजराज ॥

गाँठि-आँचर छोरि कै, मोतिसरी लीन्ही हाथ ।

सखी आवति देख राधा, लई ताकौं साथ ॥

जुबति बूझति कहाँ नागरि, निसि गई इक जाम ।

सूर ब्यौरो कहि सुनायौ, मैं गई तिहिं काम ॥9॥



करति अवसेर बृषभानु-नारी ।

प्रात तै गई, बासर गयौ बीति सब , जाम निसि गई, धौं कहा बारो ॥

हार कैं त्रास मैं, कुँवरि त्रासी बहुत, तिहिं डरनि अजहुँ नाहि सदन आई ।

कहाँ मैं जाऊँ, कह धौं रही रूसि कैं, सखिनि सौं कहति कहुँ मिली माई ॥

हार बहि जाइ , अति गई अकुलाइ कैं, सुता कै नाउँ इक वहै मेरैं ।

सूर यह बात जौ सुनैं अबहीं महर, कहैं मोहिं यै ढंग तेरे ॥10॥


राधा डर डराति घर आई ।

देखत हीं कीरति महतारी, हरषि, कुँवरि उर लाई ॥

धीरज भयौ सुता-माता जिय, दूरि गयौ तनु-सोच ।

मेरी कौं मैं काहैं त्रासी, कहा कियौ यह पोच ॥

लै री मैया हार मोतिसरी, जा कारन मोहिं त्रासी ।

सूर राधिका के गुन ऐसे, मिलि आई अबिनासी ॥11॥



परम चतुर वृषभानु-दुलारी ।

यह मति रची कृष्न मिलिबे की, परम पुनीत महा री ॥

उत सुख दियौ नंद-नंदन कौं, इतहिं हरष महतारी ।

हार इतौ उपकार करायौ, कबहुँ न उर तैं टारी ॥

जे सिव-सनक-सनातन दुर्लभ, ते बस किये कुमारी ।

सूरदास-प्रभु-कृपा अगोचर, निगमनि हू तैं न्यारी ॥12॥



प्रीति के बस्य के हैं मुरारी ।

प्रीति के बस्य नटवर सुभेषहिं धर्‌यौ, प्रीति बस करज गिरिराज धारी ।

प्रीति के बस्य ब्रज भए-माखन चोर, प्रीति बस्य दाँवरि बँधाई ।

प्रीति के बस्य गोपी-रमन नाम प्रिय, प्रीति बस जमल तरु मोच्छदाई ।

प्रीतिबस नंद-बंधन बरुन गृह गए, प्रीति के बस्य-बन-धाम कामी ।

प्रीति के बस्य प्रभु सूर त्रिभुवन बिदित, प्रीति बस सदा राधिका स्वामी ॥13॥