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व्यापक समुद्र के तट पर / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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मैंने देखा एक दिवस
व्यापक समुद्र के तट पर,
चार-चार मछुआरों के संग
'प्रभु ईश्र' को छिपकर।
 अहा सौम्य छवि-छटा देख
 मैं मन में हरषायी थी,
 उर-अन्तर में सहज प्रेम की
 दीप्ति उभर आयी थी।
अमित सत्वगुण मानो प्रभु में
सहज सिमट आया था,
जगद्वंद्य बांधवता का
अमरतसर लहराया था।
 खुले हुए नयनों से देखा
 मैंने प्रभु को जी भर
 धन्य हो गया मेरा जीवन
 मत्स्य योनि को पाकर।
देकापोलिस यहूदिया
येरुस्लेम यर्दन के
गलीलिया से आ पहुँचे
अनगिनत दुखित जन मन के.
 
 शान्ति जग उठी सबके मन में
 प्रिय प्रभु के दर्शन से,
 विगत पाप कर्मों के पंछी
 उड़े देख तन-मन से।
देख-देख मैं भी मन में
सुख शान्ति अमित पाती थी,
यद्यपि हूँ चंचला भाग्य पर
फिर भी इठलाती थी।
 
 जीवन तट पर कभी-कभी ही
 महापुरुष आते हैं,
 क्षणभर में हो हृदय पटल पर
 छाप छोड़ जाते हैं।
जन समूह को देख
चढ़ गये 'ईसा' पर्वत ऊपर,
दिया 'अमर-सन्देश' लोकहित,
मंगल पावन अक्षर।
 " शिष्यो! वे हैं धन्य
 दीन जो अपने को कहते हैं।
 प्रभु के हो आधीन
 प्रपंचों में न कभी रहते हैं।
स्वर्ग राज्य उनका ही है
वे शान्ति अमित पायेंगे,
होकर परम विनीत
धर्म की ज्योति जगा जायेंगे।
 वे हैं धन्य षोक करते जो
 जन अकर्म दर्शन कर,
 पायेंगे वे अमित सान्त्वना
 मन का मैल मिटाकर।
वे हैं प्यास धर्म की
जिनमें प्यास जगी रहती है,
परम भाव की लता हृदय में
हरी-भरी रहती है।
 उन्हें तृप्ति का सुधा कलश
 मिल सहज स्वयं जायेगा,
 उन्हें स्वप्न में भी प्रपंच का
 रंग न छू पायेगा।
वे हैं धन्य दया जिनके
उर में निवास करती है।
सहकर अत्याचार क्रोध की
आग नहीं जलती है।
 
उन पर दया करेगा ईश्वर
 सचमुच अपनायेगा,
 जिनके मन में सबके हित,
 करुणासर लहरायेगा।
वे है धन्य हृदय
जिनका निर्मल पट-सा है पावन,
उनके लिए न दुर्लभ होगा
ईश्वर का शुभ दर्शन।
 प्रेम सूत्र में बाँध जनों को
 जो नित मिलवायेंगे।
 ईश-पुत्र कहलाकर जग में
 अभिनन्दन पायेंगे।
सुनो धर्म-पथ के हे पथिकों!
जग की रीत पुरानी,
आया जो इस पथ पर
 घोर मुसीबत पड़ी उठानी।
 केवल तुम सब नहीं पूर्व के
 नवियों पर भी जमकर
 अत्याचार हुए हैं इतने
 अमर हो गये मरकर।
तुम प्रदीप हो
कर्म तुम्हारा जग को जगमग करना,
क्षणभंगुर झंझावातों से
कभी न रंचक डरना।
 जो जीवन की ज्योति जगाकर
 जग को दे जाते हैं;
 वे अनन्त की गोद प्राप्त कर
 अक्षर हो जाते हैं।
तुम जग के पावन प्रकाश हो
खुद को भूल न जाना,
तुम जैसे रत्नों से ही
बढ़ता है जगत-खजाना।
 
ज्यों पर्वत का नगर
 दूर से ही जाना जाता है,
 ज्यों प्रदीप तम से घिरकर
 ही पहचाना जात है,
त्यों ही धर्म-पुत्र दुख सहकर
अक्षर यश पाते हैं।
जगड्वाल में रहकर भी
युग-पुरुष कहे जाते हैं।
 डरों न दुख से पुत्र!
 जीवन-ज्योति जगमगायेगी,
 जो भविष्य के लिए
 एक आदर्श बना जायेगी।
अपने पिता प्रभू की महिमा
यों ही गाते रहना
बाधाओं से डरकर पुत्र!
पलभर नहीं ठहरना।
 जीवन का संघर्ष
 परम पद तुमको दिलवायेगा।
 हर्षित होकर परमेश्वर
 मन-मन्दिर में आयेगा।
और न कोई संविधान
मैं साथ यहाँ लाया हूँ,
पहले के अभिलेख पूर्ण करने
को ही आया हूँ।
 पुरखों के शिव वचन
 पूर्णता अब सब पा जायेंगे,
 अमर वाक्य होकर जगती में
 नव प्रकाश लायेंगे।
अगर मनुजता के प्रति
करुणा गहरी हो न सकेगी
थोथी श्रद्धा कृपा प्रभू की
तो फिर पा न सकेगी।
 
सुनों स्वार्थवस जो जीवों के
 प्राण हरण करता है।
 कठिन दण्ड की अग्नि
 स्वयं निज जीवन में भरता है।
ईश्वर के हैं अंश सभी
उसके ही उपजाये हैं।
उसको हैं सब प्रिय समान
 बस यही समझ पाये हैं।
 अपराधों का मूल क्रोध
 यदि भंग हो पाये,
 वे मनुष्यता के सर में
 आनद जलद खिल जाये।
इच्छा मात्र काम है जो
जगभर को नचा रहा है
मात्र एक सन्तोष
धर्म-पुत्रों को बचा रहा है।
 जो जीवन सद्भाव शान्ति से
 परिपूरित हो जाता,
 तो मन वचन कर्म से
 होकर शुद्ध सहज सुख पाता।
मिथ्या शपथ उठाना है
अपराध बहुत ही भारी,
यहाँ सभी कुछ है ईश्वर का
अपनी करनी प्यारी।
 है अधिकार एक बस उसका
 नहीं रंच है नर का
 शपथ घोर अपराध अतुल है
 ज्ीवन के पथ पर का।
देश धर्म के लिए शपथ यदि
खानी ही पड़ जाये,
तो फिर पूरी करो भले ही
सिर देना पड़ जाये।
 
करो न कटु प्रतिकार
 किसी से केवल प्रेम करो तुम
 सबमें देखो प्रभु को उर मे
 अति आनन्द भरो तुम।
भेद-भाव का भाव मिटाकर
सब में प्रेम जगाना,
भाई-भाई हैं हम सब
बस यह पहचान कराना।
 एक ज्योति जल रही सभी में
 फिर क्यों घिरा अँधेरा
 ईर्ष्या द्वेष कपअ की माया
 डाले हैं क्यों डेरा?
जागो प्यारे! और जगाओ
जो प्रसुप्त जन मन हैं
जीवन की इस प्रखर धार में
कहाँ विराम भवन है।
 हाथ मद्द के लिए तुम्हारा
 बढ़े अमित सुख पाये
 तो दूसरा कभी उसकी गतिविधि
 को समझ न पाये।
इतना गुप्त जगत में
यदि उपकार न कर पाओगे,
तो प्रभु कृपा प्राप्त करने से
व्ंचित रह जाओगे।
 सुनो, भीड़ में नहीं प्रार्थना,
 पूर्ण हुआ करती है।
 वह एकान्त ध्यान में ही
 आकाश छुआ करती है।
नहीं भीड़ में जोर-जोर से
प्रभू-प्रभू चिल्लाओ,
मन-मन्दिर में बैठ मौन
 हो धीरे-धीरे गाओ.
 
प्रभु-प्रर्थना लोकरंजन के लिए
 नहीं होती है।
 वह तो अन्तर्ज्योति जगाने में
 समर्थ होती है।
जब तक तुम एकान्त
ध्यान में डूब नहीं जाओगे,
तब तक कितना भी चिल्लाओ
प्रभू नहीं पाओगे।
 वाणा होकर क्षीण
 एक दिन स्वयं मौन धारेगी,
 फिर अन्तस की गिरा
 स्चयं को क्षण-क्षण विस्तारेगी।
स्वर्ण रत्न धरती के धन हैं
किन्तु अचिर अस्थिर हैं
सच्चा धन है भजन लोक में
अक्षर है, सुस्थिर है।
 जो भी धन प्रिय लगता मन को
 होता वहीं हृदय है,
 जैसी मति वैसी गति अन्तिम
 होनी ही निश्चय है।
अतः हृदय का कोश
परम धन से ही सज्जित करना,
क्षणभ्रगुर टुकड़ों को मन में
कभी न संचित करना।
 सुमिरण ऐसा धन है
 जिसका हरण नहीं होता है,
 बाँट न सकते बंधु बांधव
 और नहीं खोता है।
और कहाँ उस परमेश्वर से
मेरी रक्षा कर लो,
क्षमा करो हे नाथ!
हृदय के अन्धकार को हर लो,
 लो न परीक्षा हे नाथ!
 नित्य मैं दुर्बल हूँ अपना लो
 घिरा हुआ हूँ बुराईयों से
 आकर मुझे बचा लो।
अपनी चिन्ता छोड़ उसी पर
उसका चिन्तन करना,
त्याग सघन अज्ञान तिमिर को
ज्योति हृदय में भरना।
 दोष लगाओ नहीं किसी पर
 अपने दोष निकालो
 भूल मान अपमान सघन
 अभियान अनन्त मिटा लो।
जो मेरे उपदेश श्रवण कर
पालन नहीं करेगा,
वह बालू का भवन बनाने
वाला मूर्ख रहेगा।
 कथनी ही कथनी है जिसमें
 करनी रंच नहीं है,
 जिनका जीवन धर्म पंथ पर
 मुक्त प्रपंच नहीं है,
मात्र प्रदर्शन ही जिनके,
जीवन का ध्येय रहा है,
उनके लिए आत्म-दर्शन
 सचमुच अज्ञेय रहा है। "
 'ईसा' की वाणी से
 सबके हृदय खिलखिलाए थे,
 जगी अलौकिक ज्योति
 प्राण के दीप जगमगाए थे।
सागर की लहरों से मैंने
सुने वचन पावन थे,
जीवन-ज्योति हो उठी निर्मल
छलके कलश नयन थे।
 ऐसी अमरत गिरा युगों में
 कहीं जगा करती है,
 युगों-युगों से घिरा सघनतम
 क्षणभर में हरती है।
मैं मछली हूँ मेरा तो
जीवन प्रवाह अविकल है।
प्रलय गर्जना कभी, कभी तो
मधुर-मधुर कल-कल है।