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व्यापक हूं मैं / प्रभात कुमार सिन्हा
Kavita Kosh से
मेरे माथे पर हैं
नक्षत्रों के छत्र
पांवों से सटकर
घूम रही है धरती
मेरी चोटियों को
विजय-ध्वज बनाकर
लहरा रही है हवा
दुनिया के सभी
जलागारों-सागरों में
झांक रहा है
मेरा ही गात
पलाश की चादर
ओढ़ रही है
सम्पूर्ण वसुंधरा
मेरे पदाघात से
थरथरा रहे हैं
समय के सारे दुश्मन ।