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व्योम भर अपनत्व / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
दर्द जब बाँधा उभर आया गीत से पहले
तुम्हारा नाम
कुलमुलाए छन्द के पँछी
छू गई जब धूप हल्की-सी
ओढ़ युग जो सो रही बातें
लग रहीं अब, आजकल की-सी
याद टूटे स्वप्न भर लाई जो किए थे
वक़्त ने नीलाम
खोल दी खिड़की हवाओं ने
उम्र-सी पाई व्यथाओं ने
व्योम भर अपनत्व दर्शाया
बाँह में भर कर दिशाओं ने
चार मोती बो गई दृग में रात से पहले
निगोड़ी शाम
चल रहा है ज़िन्दगी पथ पर
पीठ पर लादे हुए पतझर
क्या पता कब दीप बुझ जाए
औ’ निगल जाए अँधेरा, स्वर
कामना इतनी कि पा जाऊँ, स्वर्ग से पहले
तुम्हारा धाम