शंका समाधान / 17 / भिखारी ठाकुर
वार्तिक:
कई एक जनम के पाप किया हुआ और आज जो कर रहा हूँ। यह सब मेरा पाप को खजाना वही लूट रहे हैं। जो मेरा शिकायत छपवाते हैं। सिर्फ़ उन्हीं को लिये मैं अपना नाम को सायरी बिरहा बनाकर भिखारी जीवन चरित्र में लिखा हूँ। इसमें भी लिखता हूँ। वार्तिक:
मैं कहूँ-कहूँ पर अपने को 'लवार' लिखा हूँ। जब लोग मेरे सिकायत छपवाने लगे, तब लिखता हूँ कि मैं वह लबार हूँ जो रावण ने अंगद जी को कहा था; जैसे-
बालि न कबहु गाल अस मारा, मिलि तपसिन्ह तैं भएसि लबारा।
रा।च।मा।, बा। काण्ड
गाना
हद ह छपाने वाला कई एक जानवाँ हद गुरु ज्ञान देलन तौनो लगनवाँ।
गली-गली घूमि-घुमि पढ़त बाड़ गनवा, उलटि-पलिट के किताब में के पनवां।
नाम जपि-जपि कर करेल भोजनवाँ, माई-बाप बेटा-बेटी सहित जननवां। हद ह।
कौनो बिधि मोर नाम करेल रटनवाँ, जानि गइल सब बेद-शास्त्र-पुरनवाँ।
केहू-केहू कहेला जे हउए मरदानवाँ, मिलल बाटे नाच का लबार से नादनवाँ। हद ह।
तूँ का करब निन्दा अबहिं जिन्दा बाटे तनवां, जहँ-तहँ होत दरवार में बखनवाँ।
भुक-भुक कर भगजोगनि समनवाँ, मनवाँ में कहेले जे हमहूँ हईं चनवाँ। हद ह।
सापरी बिरहा छपल बाटे तोहरे कारनवाँ।
राम भज छोड़ जपल नाउ के चरानवाँ, लरिकन के ठग भइल कवि पुरघनवां।
हमरे किताब लेके कइल उलथानवाँ, हाथ जोरि कर देत बानी ओरहनवा। हद ह।
निन्दा कर के लुटि लेल पाप के खजनवाँ, हठ क के कइले बाड़ झूठहूँ के सनवां।
कहत 'भिखारी' सेर से ना तुली करवाँ, हद ह छपने वाला कई एक जानवां। हद ह।
झुलना
नाई बंश का चरण कमल के हरदम हम गोहराते हैं।
जातिक मंडलि सभा मध्य में लिख के अरज सुनाते हैं।
गाँव-गाँव में, जिला-जिला, पेठिया पर पत्र पेठाते हैं।
कलकत्ता काशी दुनों का बिचहिं पता लगाते हैं।
कोई-कोई कविता में, मेरा नाम छपवाते हैं।
उसी को उत्तर सायरी बिरहा गाकर हम समझाते हैं।
तनिक न लागत लाज भिखारी नाई को अजमाते हैं।
राही राह में सुन-सुन करके मनहिं मन मुसकाते हैं।
हिन्दू होकर हिन्दू के सब से फजिहत करवाते हैं।
मतलब है यह कहने का जो नाई भाई कहलाते हैं।
भाई-भाई के निन्दा सुनकर, नीचा नजर नवाते हैं।
नाई वंश के औगुन गाकर, बड़े कवि कहलाते हैं।
माथ मुरेठा चन्दन चढ़ाकर, पंडित-सा बन जाते हैं।
कभी-कभी रुद्राक्ष के माला, गरदन माहिं झुलाते हैं।
अजब किसम के बोल बोलते, सुधा को नाहिं लखाते हैं।
ठग-ठग करके नाई भाई से, दाढ़ी-माथ कमवाते हैं।
बाहर बनकर छैल चिकनिया, मुसरचण्ड अस खाते हैं।
घर में माई-बाप कहियो, बड़ भोगन भोग लगाते हैं।
गाँव-घर गोतिया का दिल में, तनिको नहिं सुहाते हैं।
मेरा नाम के पुस्तक बेचकर पैसा बहुत कमाते हैं।
लड़का-लड़की दुनों बेकत भोजन कर मौज उड़ाते हैं।
नाता समझकर पूर्व-जन्म के लट-पट वहीं लगाते हैं।
बहुत दिनों पर साँच प्रेम से अतिना रीत चलाते हैं।
कहत 'भिखारी' हमहूँ ने कुछ उनहूँ को गनु गाते हैं।
सवैया
मन राम के नाम रटऽ निशि बासर जो कुछ आवे तो ताप सहुरे।
मुदई मरजाद के लूटत बा अतिना ना जानीं हम कवना कसुरे।
केहू नाहक दोष किताब में छापी के बेंचत बा मन का मगरुरे।
नाई 'भिखारी' के राम बनइहें और बिगड़ीहें कवन ससुरे।
कविता
जेते हमें गाली शिकायत छपवाई देत।
तेते खानदान माहीं परत रिश्तेदारी है।
यह जो बृतांत पूर्वान्त के ना होखत तो।
हमरा और उनका आज कौन सरोकारी है॥
काहु के न गारी बटवारी न काहु के साथ।
बनि के रुपधारी करत सभा में लबारी है।
हम उनका ना कोई एक जात नहीं दोई.
लाग रिपन सोई याते भनत 'भिखारी' है॥
वार्तिक:
कुछ नाता समझ करके हम भी कुछ दुनियादारी दिल्लगी कर देते हैं। मालूम पड़ता है कि मेरी शिकायत या गारी छापनेवाले मेरे किसी जन्म के नातेदार लगते हैं; क्योंकि गाँव के एक या दो कोस के भीतर का आदमी सब हाल जानता है, लेकिन दस-पन्द्रह कोस का आदमी बिना कोई नाते का गाली नहीं दे सकता है।