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शंखनाद के सुर / त्रिलोक सिंह ठकुरेला
Kavita Kosh से
अंधा राजा,
मौन सभासद,
दुःखी हस्तिनापुर।
जगह जगह पर
द्यूत-सभा के
मंडप सजे हुए
और पाण्डवों के
चेहरों पर
बारह बजे हुए
चीरहरण के लिए
दुःशासन
बार-बार आतुर।
भीष्म
उचित अनुचित की
गणना करना भूल रहे
विवश प्रजा के सपने
बीच हवा में
झूल रहे
छिपी कुटिलता
चट कर जाती
सच के नव अंकुर।
होगा
आने वाले कल में
एक महाभारत
कुटिल कौरवों को
फिर करना होगा
क्षत विक्षत
सुनने में आ रहे
अभी से
शंखनाद के सुर।