शंबूक की खोपड़ी / संतलाल करुण
पंडितों की दृष्टि में शंबूक का सिर
मेघनाद के सिर-सा नहीं था
न ही कुम्भकर्ण के सिर-सा
न ही रावण के सिर-सा
पंडितों ने रामकथा-वटवृक्ष के नीचे
रावणों के सिरों को
श्रद्धा-सम्मान सहित दफ़नाया
पर शंबूक की खोपड़ी को
नीच बता उसी वटवृक्ष पर टांग दिया।
तपोवृद्ध ऋषि सत्याग्रही
कोपभाजन पंडितों का बन गया।
संवेदना सिर्फ़ रामों की पीड़ा समझती
सुलोचनाओं की महार्घ पात्रता
कनक-प्रासादों में निबद्ध थी
लेखनी उपनयन में थी बँधी
नहीं तो शंबूक सिर हतभाग्य भी
सिद्ध होता तपोगति गौरव अमर्त्य।
रक्तरंजित जा गिरा उत्तरापथ में
अंत-श्रद्धा का भी न प्रारब्ध पाया
युग-विधाता पंडितों के नीति-बल से
रामकथा-वृक्ष पर टाँगा गया।
शिरोच्छेदन का सबक पा गया था
संतोष नहीं था पंडितों को
शंबूक तो शंबूक ठहरा
उसकी नराधम खोपड़ी तक को
सिखाना चाहते थे पाठ ऐसा
वंशज भी कोई न कर सके साहस कभी।
खोजी पंडितों ने टाँग दी
उसी वट में खोपड़ी शंबूक की
जिसकी जड़ों पर पीठ पावन
सत्य का, सद्धर्म का, सन्मार्ग का
प्रतिष्ठित कीर्ति-प्रतिमा राम की
झुकाते शीश सुर, नर, मुनि
चढ़ाते देवराज पुष्प
त्रिदेव भी करबद्ध वंदना करते
जहाँ उस पीठ के समतुल
दफ़न थे रावणों के सिर।
समय की शिला पर से
युगों के भारी क़दम-के-क़दम गुज़रे
कूट-चिह्न मिटे नहीं पंडितों के
आज भी कथावृक्ष पर टँगी वह खोपड़ी
आज भी वहीँ प्रतिष्ठित कीर्ति-प्रतिमा राम की
आज भी वहीं समादृत रावणों के सिर सभी।
पर शंबूक की खोपड़ी
हँसती ठहाके की हँसी
युग-युगीन यातना के बाद भी
नसीहत नहीं स्वीकार की
हँसती सदा भेदक हँसी - -
“धन्य, धन्य, राम! धन्य राम-पंडितो!”
लगाती कहकहे बार-बार
हँसना उसकी नियति हो जैसे
हँसना उसका कर्म हो जैसे
हँसना उसका कर्म-फल हो जैसे।
वह हँसती जब पंडित कोई
उसे टाँगता एक से दूसरी डाल पर
जब छद्म की रस्सी टूट जाने से
डालों से टकराती
गिर आती नीचे
जब नए पंडित
उसे फिर टाँग देते नए जतन से
जब बड़े पंडित
छेड़ते धर्म, दर्शन, व्यवस्था, अध्यात्म की
बड़ी-बड़ी लग्गियों से।
जब मझोले पंडित
उसे न छेड़ने की देते सलाह
जब अधुनातन पंडित
उसे सदा के लिए डाल से उतार
ज़मीन की गहराईं में
गाड़ देने की चलाते हाल की चर्चा
जब सनातन पंडित
उसे ऊपर ही टाँग रखने की
परम्परा पर देते ज़ोर।
क्या कहा जाए शंबूक की
चोटी-नाक मुंडित निगोड़ी खोपड़ी को
पंडितों के ब्रह्ममान्य इंगित पर
राम-जैसे राजा के राजदण्ड का
उनके-जैसे न्यायी के न्याय का
उनके परम अचूक बाण का
मज़ा चखकर भी हँसती है।
वह शंबूकों पर भी हँसती
शंबूकों के लिए बेतरह
नम आँखे दिखानेवालों पर भी
ऐसे शंबूकों पर भी जो शंबूक की तरह
न जी सकते, न मर सकते
ऐसे भी जो शंबूक से पंडित हो
आपाद-मस्तक पंडित हो गए।
वह खुलकर ख़ूब हँसी
जब द्रोण ने
एकलव्य से अंगुष्ठ-दक्षिणा माँगी
जब मंगल पाण्डेय को
ब्रिटिश पंडितों ने फाँसी चढ़ाया
जब नमक-सत्याग्रही गांधी को
उन्होंने बंदी बनाया।
जब फुले ने
आर्यावर्त की धरती पर पाठशाला खोली
जब अम्बेडकर ने
मनुस्मृतिवाले देश का संविधान लिखा
जब लिंबाराम को
बीसवीं सदी के हस्तिनापुर ने स्वीकार किया
वह हँसती रही, हँसती रही
ऊँचे कानों को बाँग देती अज़ान पागल हँसी
अनेक कालातीत गुंबदों से अनवरत।
शंबूक की खोपड़ी की
अज़ान पागल हँसी से
ऊँचे कानवाले भी
पागल हुए बिना न रह सके
एक समय तो उसकी लाज़वाब हँसी से
पंडितों की चौहद्दी काँप उठी।
फिर उसे रामकथा के बरगद से उतार
ज़मीन में गाड़ने का टोटका शुरू हुआ
पर उसे सूंघकर खोद निकालनेवाले
फिर से उसी पेड़ पर टाँगनेवाले
उसी पेड़ के नीचे
रामराज्य की स्थापना में
ठोकरें लगा-लगाकर खेलनेवाले
पंडितों की भी कमी नहीं रही।
वह कभी पेड़ पर
कभी ज़मीन पर
कभी ज़मीन के भीतर
त्रिताप झेलती हुई
कभी हँसती, कभी मौन
कभी ठोकरें खाती
कभी अपने, कभी राम के
कभी रामपंडितों के
कथा-गुंफ में शाश्वत उत्तर-सी
जीती रही, जीती रही, जीती रही।
तुलसी बाबा ने आसन जमाने से पहले
रामकथा के वटवृक्ष से चुपचाप उतार
ज़मीन की गहराई में गाड़ दी खोपड़ी
मगर बाबा पंडित ही नहीं महापंडित थे
बड़ी सफ़ाई से लेनी चाही ख़बर
खोपड़ी की आद-औलाद तक की।
जब बाबा लगे फेंकने
शब्द-बाण अप्रत्यक्ष --
“शूद्र गँवार ढोल पशु नारी”
खोपड़ी भीतर से ही हँस पड़ी ठठाकर।
जब बाबा की सर्वजनीन मंगलाशा
व्यक्त होने लगी
कौटिल्य की तर्ज़ पर --
“शूद्र न गुन गन ग्यान प्रवीना”
तो फिर उन पर पुरज़ोर ठठाई।
जब बाबा ने पैंतरा बदला --
“नीच-नीच सब तरि गए
जे रहे नाम लवलीन”
तो हँस पड़ी फिर एक बार
ज़मीन-फाड़ हँसी --
किसके नाम में बाबा, भगवान के
या भगवान के पंडितों के!
तुलसी, याज्ञवल्क्य, कौटिल्य, मनु
कोई भी नहीं बचा
शंबूक की खोपड़ी से
वह सब पर हँसती आ रही
आज नए तुलसी, नए याज्ञवल्क्य
नए कौटिल्य, नए मनु की बिसात क्या!
अब तो राम-कथा के
शाखा-पत्रों पर भी
लिपिबद्ध होने लगा
उसकी हँसी का मर्म --
मेरे सत्याग्रह पर
रामबाण सधवानेवाले पंडितो!
मुझे धड़ से अलग करवाकर
तुम सतत पराजित हो चुके हो
वह सिर तो तुम्हारे निशाने पर ही था।
वह छाती तो नंगी थी ही
तुम कितने ही गांधियों को भूनो
सत्याग्रह कभी नहीं मरता, कभी नहीं
वह दिनोंदिन और अमर होता है
फैलता-उठता, अपना वितान तानता हर कहीं।
अब तो रामकथा के शाखा-पत्र
बाँचने भी लगे हैं
उसकी हँसी का मर्म --
युग-विधाता पंडितो!
मैं शंबूक की खोपड़ी
शोषित मानवता की पुरातन शक्ति हूँ
यदि शोषकों के कँटीले हाथ
दुनिया से जाने का नाम नहीं लेते
तो मैं भी रामकथा की ऊँचाई से
उनके कँटीले हाथो को
अपनी अपराजेय हँसी से आहत करती
कभी चुप नहीं रहूँगी।