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शऊरे जात ने ये रस्म भी निबाही थी / शहजाद अहमद
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शऊरे जात ने ये रस्म भी निबाही थी
उसी को क़त्ल किया जिसने ख़ैर चाही थी
तुम्हीं बताओ मैं अपने हक़ में क्या कहता
मेरे खिलाफ़ भरे शहर की गवाही थी
कई चरागनिहाँ थे चराग़ के पीछे
जिसे निगाह समझते हो कमनिगाही थी
तेरे ही लश्करियों ने उसे उजाड़ दिया
वो सरज़मी जहाँ तेरी बादशाही थी
इसीलिए तो ज़माने से बेनियाज़ था मैं
मेरे वजूद के अन्दर मेरी तबाही थी
तेरी ज़न्नत से निकाला हुआ इन्सान हूँ मैं
मेर ऐजाज़ अज़ल ही से ख़ताकारी है
दो बलायें मेरी आँखों का मुकद्दर ‘शहजाद’
एक तो नींद है और दूसरे बेदारी है