शक़ / पूनम भार्गव 'ज़ाकिर'
वो ग़ज़ब थे
जो
ज़िद पर अड़े
ढूँढ ली उन्होनें अलग राहें
ज़िन्दा होने में
यक़ीन रखते थे वो
न ठग सकी उन्हें
मरने के बाद स्वर्ग की
अवधारणा
किसी ज़ीनत
किसी हूर का
ख़्वाब नहीं देखा उन्होंने
हर शै पर वह एतबार न किए
शक्की होना उनका
हितग्राही सिद्ध हुआ
नई खोज हमेशा
इंतज़ार करती रहीं उनका
उन्होंने
ज़मीन पर पांव टिकाए हुए
शरीर के
चुम्बकत्व पर विचार किया
हवाओं के बहाव पर
आसक्त न हुए
नए आसमानों ने उन्हें
सिर पर बैठाया
और एक हम
उन्हें सिर पर उठाए
चल पड़े!
चल पड़ना किसी के कदमों पर
अपने निशानों को खोना है
विलुप्त न होने की क़सम
पुरातन पीढ़ी ने हमें सौंप दी
और निश्चिंत होकर पर्दा कर गए
हम मानते हैं
वो मरे नहीं सिर्फ़ पर्दा किए हैं
उस पार की दुनिया के बाशिंदे
कौतुक का विषय थे कभी
अब
उनके दिये अफ़साने
जड़ हो गए हैं
यही जड़ता
हर कौम पर ठप्पा है!
काश हर बार
किसी इल्म को मानने से बेहतर होता
सोचते
पृथ्वी का एक चक्कर लगाते
और खोजते
कैसे आकाश को पृथ्वी
गिरने नहीं देती कभी भी
शक करते
उसके गुरुत्वाकर्षण पर
स्वमसिद्ध होने की ओर
बढ़ा चुके होते क़दम
कहते तेज़ आवाज़ में
यदि
सफल हुआ मैं!
तो
शक करना
मुझ पर!
नए होने की कल्पना बुरी तो नहीं!