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शकुन्तला चार दिनों की चाँदनी / गुलाब खंडेलवाल

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शकुन्तला चार दिनों की चाँदनी

तारक-ज्योतित कुसुम-जड़ित-सी
उतरी नभ की ज्योति तड़ित-सी
मुग्ध प्रकृति, ममता-विजड़ित-सी
शत-शत भुज-सरियों ने चाही स्वर्गों की निधि बाँधनी

वह मेरे उर तक आ ठहरी
सुनी देव-वंशी-स्वरलहरी
जब तक जगें दिशा के प्रहरी
तब तक रजत पंख फैला कर उड़ गयी दूर उन्मादिनी

मैंने जग देखी न छाँह भी
रही खुली की खुली बाँह भी
संग न दे सके चरण चाह भी
नहीं कन्व की, कालिदास की, मेरी वीणा-वादिनी
शकुन्तला चार दिनों की चाँदनी

(साढ़े तीन वर्षीया पुत्री के निधन पर)