भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शक्कर पुंगा और चिर्रु / प्रभुदयाल श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैंने खाया शक्कर पुंगा,
आटे की चिर्रु खाई।
माँ ने गरम-गरम रोटी पर,
पहले चुपड़ा देशी घी।
फिर मुट्ठी भर शक्कर ले उस,
मोटी रोटी पर भुरकी।
चार परत जब रोटी मोड़ी,
शक्कर पुंगा कहलाई।

आटे की छोटी लोई की,
नन्हीं कुछ बतियाँ भांजीं।
लघु आकर दिया चिड़िया का
चूल्हे में सिकने डाली।
फँसा चिरैया फिर लकड़ी में,
माँ ने मुझको पकड़ाई।

शक्कर पुंगा चिर्रु खाकर,
बचपन फिर परवान चढ़ा।
क़दम दर क़दम चलते-चलते,
दुनियाँ भर का ज्ञान मिला।
सूरज की किरणों में तपकर,
तन ने मज़बूती पाई।

मन फिर हुआ स्वच्छ झरने सा,
तन पककर फौलाद हुआ।
पाठ नहीं ढूँढा फिर कोई,
गुणा भाग सब याद किया।
पर्वत चढ़ने, खाई उतरने,
में न आई कठिनाई।