शक्ति कहाँ है? / प्रताप सहगल
सदियों पहले
विष्णु चंद्र शर्मा ने एक कहानी सुनाई
जंगल में एक शेर था
वह जब चाहता जानवरों को
मारकर खा जाता
जानवर परेशान हुए
उन्होंने सभा की
किया फ़ैसला
कि रोज़ हम में से
एक प्रस्तुत होगा
शेर की माँद में।
शेर प्रसन्न था
उसके पास रोज़ एक शिकार
खुद-ब-खुद आने लगा
शेर उसे खा-खाकर
लुत्फ़ उठाने लगा
एक दिन ख़रगोश की बारी आई
बाकी की कहानी तो आप जानते ही हैं।
यह कहानी चट्टान की तरह लुढ़कती हुई
मेरे पिता तक पहुँची
मेरे पिता से मुझ तक
कुछ गोल कुछ नुकीली
कहानी मेरे जिस्म को छीला
और कहीं अंदर तक कुंडली मारकर बैठ गई
फिर धीरे-धीरे उसमें एक हलचल हुई
मैंने कहानी सुनाईै अपने वक़्त को
पूर्व पक्ष ज्यों का त्यों
पर उत्तर पक्ष यों।
ख़रगोश को देखते ही शेर गरजा
इतनी देर क्यों
और ऊपर से तुम
पिद्दी के शोरबे से भला पेट भरता है।
ख़रगोश अभिनय में उस्ताद था
थर-थर काँपने लगा
साँस खींच-खींचकर हाँफने लगा
बोला-हुज़ूर के दरबार में आ रहा था
कि एक शेर और मिल गया
गरजा
“मैं हूँ जंगल का राजा, तू कहाँ जाता है?”
शेर के राजत्व को चुनौती थी
वह भूख भूल गया
और ख़रगोश के साथ
दूसरे राजा की खोज में निकल पड़ा
ख़रगोश उसे एक कुएँ के पास ले गया
गुर्राया
ख़रगोश मुस्कराया
राजा को कैसे बुद्धू बनाया
गुर्राहट की प्रतिध्वनि से
कुआँ काँपने लगा
अंदर से बाहर
और बाहर से अंदर
जंगल में
गुर्राहट का साम्राज्य था
शेर को एकात्म होते देर न लगी
उसने अद्वैत का अर्थ समझ लिया
और पलक झपकते ही
ख़रगोश को धर लिया।