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शक्ति संतुलन / अरविन्द भारती
Kavita Kosh से
अभिशप्त थे जो खेत
कभी बंजर जमीं के लिए
चल रहे है हल वहाँ
बोये जा रहे है बीज
उग रही है फसलें
पंख जो कतर दिए थे
सदियों पहले
फड़फड़ाने लगे है
तूफान उठा रहे है
पिंजरे में
खूंटे से बंधे
एक ही परिधि में घूमते
पहचानने लगे है
अपना वजूद
करने लगे है बगावत
रस्सियों के बल
टूटने लगे है
परिवर्तन
विद्रोह है उनके लिए
कुचलने को जिसे
उठा लेते है वो
पारंपरिक हथियार
एक तरफ़ा युद्ध
शक्ति संतुलन तक
जारी है।