भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शक्ति संतुलन / अरविन्द भारती

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अभिशप्त थे जो खेत
कभी बंजर जमीं के लिए
चल रहे है हल वहाँ
बोये जा रहे है बीज
उग रही है फसलें
पंख जो कतर दिए थे
सदियों पहले
फड़फड़ाने लगे है
तूफान उठा रहे है
पिंजरे में

खूंटे से बंधे
एक ही परिधि में घूमते
पहचानने लगे है
अपना वजूद
करने लगे है बगावत
रस्सियों के बल
टूटने लगे है

परिवर्तन
विद्रोह है उनके लिए
कुचलने को जिसे
उठा लेते है वो
पारंपरिक हथियार
एक तरफ़ा युद्ध
शक्ति संतुलन तक
जारी है।