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शक्ति - 1 / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

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प्रेम का वह अनुपम उद्यान,
जहाँ थे भाव-कुसुम कमनीय,
सुरभि थी जिसकी भुवन-विभूति,
मंजुता भव-जन-अनुभवनीय।
हो रहा है वह क्यों छवि-हीन,
छिना क्यों उसका सरस विकास;
बना क्यों अमनोरंजन-हेतु
विमोहक उसका विविध विलास?
रहा जो मानस-शुचिता-धाम,
रहे बहते जिसमें रस-सोत,
मिले जिसमें मोती अनमोल,
भर रहे हैं क्यों उसमें पोत?
वचन जो करते बहुत विमुग्ध,
सुधा-रस का था जिसमें वास,
मिल रहा है क्यों उसमें नित्य
अवांछित असरसता-आभास?
सरलता-मृदृता-मंजुल-बेलि,
हृदय-रंजन था जिसका रंग;
बन रही है किसलिए अकांत
मंजु-मन मधु-ऋतु का तज संग।
हो गयी गरल-वलित क्यों आज
सुधा-सिंचित सुंदर अनुरक्ति;
बनी क्यों कुसुम-समान कठोर
कुसुम-जैसी कोमलतम शक्ति।