भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शताब्दी की सुरसा / अमरेन्द्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बढ़ी हुई आबादी; यह तो सुरसा ही मुँह खोले
जंगल, धरती, पर्वत अब तो जन से भरे हुये हैं
क्या नदियाँ और झीलें नभ के ग्रह तक डरे हुए हैं
इस धरती का क्या होगा अब ? हर-हर बम-बम भोले !

मैदानों में बसी बस्तियाँ; गली-सड़क पर मेला
इस्कूलों में भीड़ लगी है, मंदिर में कोलाहल
ज्यों वर्षा के पहले दीवालों पर चींटी के दल
दृष्टि जहाँ तक जा पाती है वहीं मनुज का रेला ।

बढ़ी हुई महँगाई उतनी, जितनी है आबादी
रोज कुचलकर मरते उतने, जितने बचकर मरते
मूल्य मनुज का, मानवता का क्षरित, धूला झरते
कहीं कफन न बन जाए इच्छाओं की यह खादी ।

धरती के आँचल में इतनी जगह कहाँ है अब
कहाँ रखेंगे पाँव देवता, आयेंगे वे जब ।