भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शदीद प्यास थी फिर भी छुआ न पानी को / शहरयार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शदीद प्यास थी फिर भी छुआ न पानी को
मैं देखता रहा दरिया तिरी रवानी को

सियाह रात ने बेहाल कर दिया मुझ को
कि तूल दे नहीं पाया किसी कहानी को

बजाए मेरे किसी और का तक़र्रुर हो
क़ुबूल जो करे ख़्वाबों की पासबानी को

अमाँ की जा मुझे ऐ शहर तू ने दी तो है
भुला न पाऊँगा सहरा की बे-करानी को

जो चाहता है कि इक़बाल हो सिवा तेरा
तो सब में बाँट बराबर से शादमानी को।