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शफ़क़-सिफ़ात जो पैकर दिखाई देता है / जुबैर रिज़वी

शफ़क़-सिफ़ात जो पैकर दिखाई देता है
हर इक निगाह का महवर दिखाई देता है

उधर खुली कोई खिड़की न कोई दरवाज़ा
जहाँ से आग का मंज़र दिखाई देता है

चलो के नीली फ़जाओं में बाद-बाँ खोलें
सफ़र-नवाज़ समंदर दिखाई देता है

कटे तो कैसे ये अँधी रिफ़ाक़तों का सफ़र
न कोई चेहरा न मंज़र दिखाई देता है

नज़र न आए तो सौ वहम दिल में आते हैं
वो एक शख़्स जो अक्सर दिखाई देता है

पड़े है बंद सभी ज़ीने उन छतों के ‘जुबैर’
जहाँ जहाँ से तेरा घर दिखाई देता है