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शफ़क़ के रंग निकलने के बाद आई है / इन्दिरा वर्मा
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शफ़क़ के रंग निकलने के बाद आई है
ये शाम धूप में चलने के बाद आई है
ये रौशनी तेरे कमरे में ख़ुद नहीं आई
शमा का जिस्म पिघलने के बाद आई है
इसी तरह से रखो बंद मेरी आँखें अब
के नींद ख़्वाब बदलने के बाद आई है
यक़ीन है के कभी बे-असर नहीं होगी
दुआ लबों पे मचलने के बाद आई है
नदी जो प्यार से बहती है रेग-ज़ारों में
ये पत्थरों में उछलने के बाद आई है
थी जिस बहार की उल्झन तमाम मुद्दत से
वो 'इंदिरा' के बहलने के बाद आई है