शबनम हूँ सुर्ख़ फूल पे बिखरा हुआ हूँ मैं 
दिल मोम और धूप में बैठा  हुआ हूँ मैं 
कुछ देर बाद राख मिलेगी तुम्हें यहाँ 
लौ बन के इस चराग़ से लिपटा हुआ हूँ मैं 
दो सख़्त खुश्क़ रोटियां कब से लिए हुए 
पानी के इन्तिज़ार में बैठा हुआ हूँ मैं 
लाठी उठा के घाट पे जाने लगे हिरन 
कैसे अजीब दौर में पैदा हुआ हूँ मैं 
नस-नस में फैल जाऊँगा बीमार रात की 
पलकों पे आज शाम से सिमटा हुआ हूँ मैं 
औराक़ में छिपाती थी अक़्सर वो तितलियाँ 
शायद किसी किताब में रक्खा हुआ हूँ मैं 
दुनिया हैं बेपनाह तो भरपूर ज़िंदगी
दो औरतों के बीच में लेटा हुआ मैं