भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शबनम हूँ सुर्ख फूल पे बिखरा हुआ हूँ मैं / बशीर बद्र
Kavita Kosh से
शबनम हूँ सुर्ख़ फूल पे बिखरा हुआ हूँ मैं
दिल मोम और धूप में बैठा हुआ हूँ मैं
कुछ देर बाद राख मिलेगी तुम्हें यहाँ
लौ बन के इस चराग़ से लिपटा हुआ हूँ मैं
दो सख़्त खुश्क़ रोटियां कब से लिए हुए
पानी के इन्तिज़ार में बैठा हुआ हूँ मैं
लाठी उठा के घाट पे जाने लगे हिरन
कैसे अजीब दौर में पैदा हुआ हूँ मैं
नस-नस में फैल जाऊँगा बीमार रात की
पलकों पे आज शाम से सिमटा हुआ हूँ मैं
औराक़ में छिपाती थी अक़्सर वो तितलियाँ
शायद किसी किताब में रक्खा हुआ हूँ मैं
दुनिया हैं बेपनाह तो भरपूर ज़िंदगी
दो औरतों के बीच में लेटा हुआ मैं