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शबाब-ए-हुस्न है बर्क़ ओ शरर की / ग़ुलाम रब्बानी 'ताबाँ'
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शबाब-ए-हुस्न है बर्क़ ओ शरर की मंज़िल है
ये आज़माइश-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र की मंज़िल है
सवाद-ए-शम्स-ओ-क़मर भी बशर की मंज़िल है
अभी तो परवरिश-ए-बाल-ओ-पर की मंज़िल है
ये मय-कदा है कलीसा ओ ख़ानक़ाह नहीं
उरूज-ए-फ़िक्र ओ फ़रोग़-ए-नज़र की मंज़िल है
हमें तो रास ही आई फ़ुग़ाँ की बे-असरी
मगर बताओ तो कोई असर की मंज़िल है
वो रह-बरी-ए-जनाब-ए-ख़िज़्र की मंज़िल थी
ये रह-नुमाई-ए-फ़िक्र-ए-बशर की मंज़िल है
ये राज़ पा न सके साहिबान-ए-होश-ओ-ख़िरद
जुनूँ भी इक निगाह-ए-पर्दा-दर की मंज़िल है
क़याम शामिल-ए-मश्क़-ए-ख़िराम है 'ताबाँ'
सफ़र का तर्क भी गोया सफ़र की मंज़िल है