शबे-फ़ुर्कत थे फ़क़त दो ही सहारे मुझ को / रतन पंडोरवी
शबे-फ़ुर्कत थे फ़क़त दो ही सहारे मुझ को
देखता था मैं सितारों को सितारे मुझ को
क्यों न हों उन के सितम जान से प्यारे मुझ को
नफ़अ से बढ़ के हैं उल्फ़त में खसारे मुझ को
अपनी हस्ती के सिवा कोई सहारा न मिला
बेसहारा ही मिले और सहारे मुझ को
मैं ने जिस वक़्त किनारों की तमन्ना छोड़ी
ख़ुद ब-ख़ुद लेने चले आये किनारे मुझ को
उठ के पहलू से चले हो तो बताते जाना
छोड़ कर जाते हो अब किस के सहारे मुझ को
सोचता हूँ तो सहारों का सहारा मैं हूँ
फिर कहां देंगे सहारा ये सहारे मुझ को
क्या ये अंदाज़ उन्हें तू ने सिखा रक्खे हैं
क्यों रुलाते हैं ये हंसते हुए तारे मुझ को
कितने नादिम हैं वो ख़ुद वादा फरामोशी पर
अब बुलाते भी नहीं शर्म के मारे मुझ को
वो बहर-तौर मिरी जान का दुश्मन ठहरे
लेकिन इस पर भी हैं सौ जान से प्यारे मुझ को
इश्क़ की राह में ये कौन सी मंज़िल आई
ख़ाक के ज़र्रे हुए आंख के तारे मुझ को
हाए वो वक़्त कि जब चार हुई थीं आंखें
आज तक याद हैं अन्दाज़ तुम्हारे मुझ को
दौड़ कर मैं ने 'रतन' धार पे गर्दन रख दी
तेग़-ए-क़ातिल ने किये ऐसे इशारे मुझ को।