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शब्दों का सौदागर / अहिल्या मिश्र

Kavita Kosh से
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आजकल औरों की तरह
बोलने लगी हूँ मैं,
जुबाँ के बंद ताले
खोलने लगी हूँ मैं
जी हाँ हुज़ूर, अब तो
बोलने लगी हूँ मैं।
शब्दों की गुफाओं में
अपने को तौलने लगी हूँ मैं

मेहरबानी करके ध्यान रखिएगा।
मैं कोई ताज़ा अख़बार का पन्ना नहीं
चाय की चुस्की के साथ ही जिसमें छपे
खून / डकैती / बलात्कार / दुर्घटना / भ्रष्टाचार

आप सब सुड़क जाएंगे।
कोई कोना भी चाटे बिना
हाथ से उसे नहीं छोड़ पायेंगे।
और चटखारे भर-भर कर अपने
ऑफिस के दोस्तों को सुनायेंगे।

न तो मंत्री या समाज सेवी के
उद्घाटन समारोह का ब्योरा हूँ
जिसमें नज़रें गड़ा कर आप
अपने लिए कुछ ख़ास ख़बर ढूँढ पायेंगे।
शब्दों के गढ़ का केवल पहरूवा ही तो हूँ, मैं।

अजी एक बात और सुन लीजिए
मैं कोई प्रेम कविता नहीं
जो सबों के लिए केवल सपने बुने
और उसमें डूबकर आप भी
अपने लिए कोई सपना चुनें।
पत्थरों की सख़्ती से
बनी ऊँची मीनार हूँ मैं
हाँ जी जहाँ पहुँच कर आप
अपनी बुलंदी तो माप सकते हैं।
किंतु मुझको / इसको / उसको
किसी को गड्ढे में नहीं डाल सकते।
इसलिए तो अंगार में भी
लावे-सा खौलने लगी हूँ मैं
जी हाँ हुज़ूर, अब बोलने लगी हूँ मैं।

ताजमहल की या मुमताज़ की
ख़ैरख्याह नहीं हूँ मैं
आपके किसी पहचान का प्रश्नपत्र
नहीं नहीं जी, नहीं हूँ मैं
और न ही किसी सब्ज बाग़ की लड़ी हूँ मैं।
हाँ जी इसीलिए तो सच्चाई के पर्दे
पर तेज पूंज-सा दहकने लगी हूँ मैं
जी हाँ हुज़ूर, अब तो बोलने लगी हूँ मैं।

मैं तो बस गाँव के कोने पर बनी अछूत
की झोपड़ी का बुझा हुआ चूल्हा हूँ
जिसमें पाँच बरस पर भूले से
एक बार आग जल उठती है।
और भीखू चमार के
बच्चों की किलकारियाँ गूंजने का
दिन भी आता है।
छबीली रमियाँ की छोटी-सी घूँघट की ओट में
झांकती प्रश्न में डूबी
दहशत से भरी आँखों की भाषा हूँ मैं।
जो लपलपाती सॉंप के जीभ
सी चाटकर झट झुक जाती है
उसी चमैनियाँ के मुँह की बोली हूँ मैं।
हाँ जी इसलिए दीनता का वजन
तौलने लगी हूँ मैं।
जी हाँ हुज़ूर आजकल बोलने लगी हूँ मैं।

जरा ग़ौर फ़रमाइएगा
कोई फ़रमाईश नहीं-नहीं हूँ मैं
आपके लिए कोई आज़माइश भी नहीं हूँ मैं
आप अगली सदी की ओर जा रहे हैं
क्या हमें भी अपने साथ ले जा रहे हैं /
नहीं, नहीं हुज़ूर आप क्यों अपनी
तौहीन करवायेंगे।
यह सब सहने के लिए ही तो
हँसियों की फसली लिए खड़ा हूँ मैं
आपके रास्ते में कहाँ अडा हूँ मैं /

आप सबने जो शब्दों के नारे दिए हैं
उन्हीं घोड़ों को दौड़ा रही हूँ मैं
इसीलिए परत-दर-परत
खुलने लगी हूँ मैं
हाँ जी हुज़ूर आजकल औरों की तरह
ही बोलने लगी हूँ मैं।