शब्दों की कारीगरी / योगेंद्र कृष्णा
घर बाहर सारी बहसें
मैंने कर डालीं अपने पक्ष में
दलील पर दलील
दलील दर दलील
हमारे पक्ष को पुख़्ता करती रहीं
तराशती रहीं हथियार की तरह
हमारे शब्दों को
उड़ते रहे परखचे प्रतिपक्ष के
चिकने शब्दों तहरीरों से
बनाते रहे हम रास्ते
पगडंडियां और सीढ़यां
अपने दुश्मनों प्रतिद्वंद्वियों के बीच से
सराहे गए हम देश और विदेश में
किताबों से सज गईं
हमारी आलमारियां
घिर गए हम पुरस्कारों प्रशंसाओं से
मुश्किल था सचमुच खड़ा होना
किसी मामूली इंसान का
मेरे सामने सिर उठाना
किसी अनगढ़ बेजुबान का
बिलकुल अलग थे हम
अपने भी साथियों से
अपने ही भाइयों और बहनों से
नपे-तुले शब्दों में करते थे बातें
हंसते भी थे जरा संभल कर
पिता की बात और थी
जिनके लिए मैं शब्दों की बहुत बड़ी ढाल था
लेकिन मेरी मां ने एक दिन
उलट-पुलट देख लीं मेरी तहरीरें
शब्दों की मेरी कारीगरी
और कहा फिर भी
जैसे बहुत प्यार और मनुहार से
क्या ही अच्छा होता जो तुम्हें भी
मैं खुद ही पढ़ाती...
जैसे नन्हकू और नन्हीं को पढ़ाया...
तुम तो अपने देस को भी देश लिखते हो
पता नहीं क्या लिखोगे आखिर परदेस को...
मां की बातों पर हंस दिया था नन्हकू
और मुस्कराई थी नन्हीं
मेरे सारे शब्दों पर...
अबतक इतनी जतन से अर्जित
मेरे सारे औजारों-अभिमानों पर
बहुत भारी थी उनकी निश्छल
और प्यार में पगी
अनगढ़-सी देसी वह हंसी…